24CityLive: रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने भारत की स्वतंत्र विदेश नीति की तारीफ की है। रूस के विदेश मंत्री सेर्गेई लावरोफ़ ने कहा है कि भारत न सिर्फ़ स्वाभाविक रूप से बहुध्रुवीय दुनिया में एक अहम ध्रुव बनने की महत्वाकांक्षा रखता है बल्कि वो एक बहुध्रुवीय दुनिया बनाने के लिए केंद्र में भी है.
इससे पहले लावरोफ़ ने हाल में यूक्रेन के ख़िलाफ़ युद्ध को लेकर भारत के रुख़ को संतुलित बताया था और भारतीय विदेश नीति की तारीफ़ की थी.
अब उन्होंने प्रिमाकोव रीडिंग्स इंटरनेशनल फोरम में भारत की विदेश नीति की तारीफ़ करते हुए उसे बहुध्रुवीय वैश्विक व्यववस्था में एक ध्रुव का स्वाभाविक दावेदार बताया है.
लावरोफ़ ने कहा कि पश्चिमी देश वर्चस्व वाली वैश्विक व्यवस्था को छोड़ना नहीं चाहते. ये बहुध्रुवीय व्यवस्था के यथार्थ को स्वीकार नहीं करना चाहते.
ये साफ़ है कि नई ताक़तें अमेरिका के नेतृत्व वाली विश्व व्यवस्था को मंज़ूर करने के लिए तैयार नहीं हैं.
लेकिन पश्चिमी देश ज़बर्दस्ती इस व्यवस्था को बनाए रखना चाहते हैं. पाँच दशकों से चली आ रही इस आदत को वो छोड़ने के लिए तैयार नहीं हैं.
लावरोफ़ ने जर्मनी और जापान की तुलना में भारत और ब्राज़ील को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने पर ज़ोर दिया.
उन्होंने कहा कि दोनों देश इसके लिए ज़ोर लगा रहे हैं और ये बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था में अहम भूमिका वाली देशों की बढ़ती आकांक्षाओं का सबूत है.
प्रिमाकोव और उनका बहुध्रुवीय विश्व का सिद्धांत
येवेगेनी प्रिमाकोव रूसी राजनीतिज्ञ और राजनयिक थे. वह 1998 से 1999 तक रूस के प्रधानमंत्री रहे. इससे पहले वो रूस के विदेश मंत्री रह चुके थे.
1996 में विदेश मंत्री रहते हुए उन्होंने रूसी सरकार के सामने रूस, भारत और चीन के गठबंधन पर आधारित बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था की वकालत की.
इसे दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका की लादी गई एक ध्रुवीयविश्व व्यवस्था का विकल्प बताया गया था.
उनका कहना था कि रूस को अमेरिका केंद्रित अपनी विदेश नीति को बदलने की ज़रूरत है. उन्होंने रूस को भारत और चीन के साथ अपनी दोस्ती ज़्यादा मज़बूत करने की सलाह दी थी.
उन्होंने कहा था कि बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था में रूस, चीन और भारत की तिकड़ी पश्चिम के पीछे लगने के बजाय अपनी स्वतंत्र राह बनाने के इच्छुक देशों को कुछ हद तक संरक्षण दे सकेगी.
लावरोफ़ ने अपने भाषण में बहुध्रुवीय व्यवस्था का ज़िक्र करते हुए एक बार फिर रूस, भारत और चीन की इस तिकड़ी पर ज़ोर दिया.
उन्होंने कहा, ”प्रिमाकोव का रूस, भारत और चीन की तिकड़ी का विचार ही आगे चल कर ब्रिक्स में तब्दील हुआ. बहुत कम लोगों को पता है कि आरआईसी अब भी चल रहा है. इसी गठबंधन के आधार पर ही तीनों देशों के विदेश मंत्री लगातार मिलते रहते हैं.” येवेगेनी प्रिमाकोव
भारत की इतनी तारीफ़ क्यों
रूसी विदेश मंत्री होने के नाते लावरोफ़ प्रिमाकोव के बहुध्रुवीय विश्व व्यवस्था के सिद्धांत को बख़ूबी समझते हैं और उन्हें फ़िलहाल इस व्यवस्था में भारत की अहम भूमिका नज़र आ रही है तो इसकी क्या वजह है?
आख़िर वह जर्मनी और जापान के बजाय भारत और ब्राजील को संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का स्थायी सदस्य बनाने पर क्यों ज़ोर दे रहे हैं.
क्यों कह रहे हैं कि भारत एक बड़ी आर्थिक ताक़त बनता जा रहा है और आगे वह दुनिया की शीर्ष अर्थव्यवस्था बन सकता है.
क्यों वह तमाम तरह की समस्याओं को सुलझाने में भारत की विशाल कूटनीतिक अनुभव का हवाला दे रहे हैं और एशिया में इसकी नेतृत्वकारी भूमिका की ओर ध्यान दिला रहे हैं.
इन तमाम सवालों के जवाब जानने के लिए बीबीसी हिंदी ने जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में रशा एंड सेंट्रल एशियन स्टडीज में प्रोफेसर संजय कुमार पांडे से बात की.
उन्होंने कहा,” लावरोफ़ के इस बयान का संदर्भ समझने के लिए हमें थोड़ा पीछे चलना होगा. ये पहली बार नहीं है, जब रूस ने भारतीय विदेश नीति की तारीफ़ की है. 1955-56 और 1971 की संधि के बाद से ही सोवियत संघ भारत को अति महत्वपूर्ण देशों की सूची में रखता आया है.”
उन्होंने कहा, ”जब गुटनिरपेक्ष नीति बनी तब भी सोवियत संघ ने इसे मान्यता दी और माना कि ये गुटनिरपेक्ष देश एक स्वतंत्र विदेश नीति रखते हैं और सोवियत संघ को इनसे संबंध सुधारना चाहिए.”
उन्होंने कहा, ”सोवियत संघ ( रूस इस संघ का एक हिस्सा था) गुटनिरपेक्ष देशों में भी भारत से संबंध सुधारने पर काफ़ी ज़ोर देता रहा. लियोनिद इलियिच के ज़माने में सोवियत संघ ने भारत से अहम समझौते किए. हालांकि नब्बे के दशक में रूस का पश्चिचमी देशों की ओर थोड़ा रुझान बढ़ा लेकिन 1996 में प्रिमाकोव ने रूस, भारत और चीन की तिकड़ी यानी आरआईसी की बात ज़ोर-शोर से रखी.”
वह कहते हैं, ”प्रिमाकोव रूस की स्वतंत्र और स्वायत्त विदेश नीति के पक्ष में थे. ऐसी विदेश नीति जिसकी धुरी यूरेशिया हो. लेकिन इसमें भारत और चीन से भी खास संबंध बनाने पर ज़ोर था.”
क्या भारत की विदेश नीति स्वतंत्र है?
अब एक बार फिर रूस, भारत और चीन की तिकड़ी और बहुध्रुवीय वैश्विक व्यवस्था की बात कर रहा है. आख़िर क्यों? लावरोफ़ क्यों भारत को इस व्यवस्था की एक धुरी मानते हैं?
संजय कुमार पांडे कहते हैं, ”2014 में जब पहली बार रूस ने क्राइमिया पर हमला किया तो भारत ने न उसका समर्थन किया और न निंदा की. उसने कहा कि रूस के क्राइमिया में कुछ वाजिब सुरक्षा चिंता और हित हो सकते हैं. क्राइमिया और अब यूक्रेन हमले के दौरान तक रूस ने देखा कि भारत की नीति हमेशा से पश्चिमी देशों से अलग रही है.”
वो कहते हैं, ”भारत ने रूस का समर्थन नहीं किया लेकिन पश्चिम देशों की भाषा और उसके प्रतिबंधों को देखते हुए उसने ये भी कहा कि ये मामला इस तरह से सुलझेगी नहीं. प्रधानमंत्री मोदी ने रूसी राष्ट्रपति के साथ बातचीत में साफ कहा कि ये युद्ध का समय नहीं है. लेकिन भारत ने संयुक्त राष्ट्र में रूस के ख़िलाफ़ पश्चिमी देशों के निंदा प्रस्तावों का समर्थन भी नहीं किया. ”
उनके मुताबिक़, ”इससे रूस के सामने साफ़ हो गया कि भारत पश्चिमी देशों से उलट इन मामलों में अपनी स्वतंत्र विदेश नीति के मुताबिक़ चल रहा है. यही वजह है कि रूस को एक बहुध्रुवीय व्यवस्था में भारत को एक धुरी नजर आ रहा है.”
कहा जा रहा है कि 2014 में मोदी सरकार के आने के बाद भारत की विदेश नीति में धार आ रही है और यह ज़्यादा स्वतंत्र दिख रही है?
विदेश और सुरक्षा मामलों को कवर करने वाली जानी-मानी भारतीय पत्रकार नयनिमा बासु इस सवाल के जवाब में कहती हैं, ”भारत ने शुरू से ही एक स्वतंत्र विदेश नीति पर चलने की कोशिश की. पहले इस गुटनिरपेक्ष नीति कहा जाता था और अब ये सामरिक स्वायत्तता की नीति में बदल गई है.”
हालांकि नयनिमा कहती हैं कि हाल में दिनों में इसमें थोड़ा बदलाव दिखा है. मोदी सरकार के शासन में भारत अमेरिका की ओर निर्णायक तौर पर मुड़ता दिखा है. हालांकि नियम आधारित वैश्विक व्यवस्था की हिमायत करने का इसका रुख़ बरक़रार है.
भारत और चीन का द्वंद्व
सवाल ये है कि क्या भारत 2014 से एक स्वतंत्र विदेश को आगे बढ़ाने में कामयाब रहा है या फिर इसे बढ़ा-चढ़ा कर पेश किया जा रहा है.
संजय कुमार पांडे कहते हैं, ”पहले की सरकारों ने भी काफ़ी हद तक विदेश नीति को स्वतंत्र रखने की कोशिश की थी. लेकिन मोदी सरकार ने क्राइमिया और फिर यूक्रेन संकट को देखते हुए अपने देश की विदेश नीति की स्पष्टता ज़ाहिर कर दी है. ”
वो कहते हैं, ”ऐसा नहीं है कि भारत की स्वतंत्र विदेश नीति को बढ़ा-चढ़ा कर बखान किया जा रहा है. इसके उदाहरण दिखते हैं. ईरान के ख़िलाफ़ अमेरिकी प्रतिबंधों के बावजूद भारत ने उसके साथ चाबहार परियोजना पर सहयोग बरक़रार रखा. भारत ने 2016-17 के दौरान शंघाई सहयोग संगठन यानी एससीओ की सदस्यता ली जबकि माना जाता है कि यह चीन का असर वाला संगठन है. दूसरी ओर पश्चिमी देशों के साथ सहयोग के उदाहरण के तौर पर क्वॉड में भारत की भागीदारी को ज़िक्र किया जा सकता है. ”
लावरोफ़ ने रूस, भारत और चीन यानी आरआईसी की तिकड़ी की नई वैश्विक व्यवस्था में बड़ी भूमिका में देख रहे हैं. लेकिन क्या चीन और भारत के बीच के तनावपूर्ण संबंधों की छाया इस पर नहीं पड़ेगी?
संजय कुमार पांडे कहते है, ”ये ठीक है कि भारत और चीन के संबंध में सीमा विवाद और व्यापार के मुद्दे को लेकर तनाव है लेकिन कई मुद्दों जैसे पर्यावरण और अंतरराष्ट्रीय मंच पर ट्रेड डील के सवाल पर दोनों के बीच सहयोग रहा है.”
यूएन सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता का मामला
लावरोफ़ ने प्रिमाकोव रीडिंग्स इंटरनेशनल फोरम में संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद की स्थायी सदस्यता के लिए जर्मनी और जापान की तुलना में भारत और ब्राज़ील को तवज्जो मिलना चाहिए. भारत और ब्राजील अपने अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय नज़रियों की वजह से सुरक्षा परिषद में ज़्यादा वैल्यू एडिशन कर सकते हैं.
लेकिन नयनिमा बासु कहती हैं कि ये फ़ैसला सिर्फ़ रूस के फ़ैसले पर निर्भर नहीं करेगा. भारत के दावेदारी को चीन रोक सकता है.